मुंशी प्रेमचंद के विचारों का संग्रह
1. लोग हँसेंगे; लेकिन जो लोग ख़ाली हँसते हैं, और कोई मदद नहीं करते, उनकी हँसी की वह क्यों परवा करे।
मुंशी प्रेमचंद
3. दुःखी आशा से ईश्वर में भक्ति रखता है, सुखी भय से ।
प्रेमचंद
4. हमारे मुँह की रोटी कोई छीन ले, तो उसके गले में उंगली डालकर निकालना हमारा धर्म हो जाता है।
- मुंशी प्रेमचंद
5. जो धर्म हमारी आत्मा का बंधन हो जाए, उससे जितनी जल्दी हम अपना गला छुड़ा लें उतना ही अच्छा है।
प्रेमचंद
6. धर्म का मुख्य स्तंभ भय है।
प्रेमचंद
7. 'हिंदुत्व अब कहीं नजर आता है तो गुंडों में। हमारी समझ में मुसलमानों से हिंदू जाति को शतांश हानि नहीं पहुंची है जितनी इन हिंदू पाखंडियों के हाथों पहुंच रही है। राष्ट्रीयता की पहली शर्त वर्णव्यवस्था, ऊंच-नीच के भेद और धार्मिक-पाखंड की जड़ खोदना है।'
-प्रेमचंद
(हंस, 1932)
8. धर्म के साथ राजनीति बहुत खतरनाक हो जाती है।
~ मुंशी प्रेमचंद
9. शिक्षा का कम से कम इतना प्रभाव तो होना चाहिए कि धार्मिक विषयों में हम मूर्खों की प्रसन्नता को प्रधान न समझें।
प्रेमचंद
प्रेमचंद
11. अन्याय में सहयोग देना अन्याय करने के ही समान है।
प्रेमचंद
12. धर्म का मुख्य स्तंभ भय है।
प्रेमचंद
13. ''साम्प्रदायिकता सदैव संस्कृति की दुहाई दिया करती है। उसे अपने असली रूप में निकलने में शायद लज्जा आती है, इसलिए वह उस गधे की भाँति, जो सिंह की खाल ओढ़कर जंगल में जानवरों पर रौब जमाता फिरता था, संस्कृति का खोल ओढ़कर आती है।''
— मुंशी प्रेमचंद
15. लोग कहते हैं आंदोलन, धरना प्रदर्शन और जुलूस निकालने से क्या होता है? इससे यह सिद्ध होता है कि हम जीवित हैं!
मुंशी प्रेमचंद
मुंशी प्रेमचंद
17. देहात में जिसके घर में दोनों जून चूल्हा जले, वह धनी समझा जाता है।
प्रेमचंद