अंधविश्वासों का मकड़जाल


भ्रम, अंधविश्वास तथा झूठी धारणाएं धर्मों के मुख्य अंग बन गए हैं। भ्रम, प्राचीन तथा मध्यकालीन युग के भिन्नभिन्न धर्मों के बचे अंश है, जो हमारी कमजोरियों के कारण आधुनिक सदी में भी जीवित है और बढ़ते ही जा रहे है।


कोई सहेली मंगल को सिर नहीं धोती और कोई बृहस्पति को।
कोई किसी रंग या किसी अंक को शुभ या अशुभ मानने लगता है।
आजकल बच्चे पैदा करने के लिए भी शुभ मुहूर्त निकलवाते है और उसी शुभ मुहूर्त में डॉक्टर से बच्चे को ऑपरेशन करके बच्चे को निकालने में तनिक संकोच नहीं करते इसी अंधविश्वास की वजह और डॉक्टर थोड़े से फायदे के लिए नार्मल डिलेवरी की संख्या लगातार घट रही  हैं।
सूर्य ग्रहण या चन्द्र ग्रहण जैसी प्राकृतिक घटना पर बड़े बड़े ज्योतिषी, पंडित खाना ना खाने और ना सोने की सलाह देते हैं। यही ज्योतिषी और पंडित भविष्यवाणी और विवाह के लिए शुभ मुहूर्त निकाले थे लेकिन कॉरोना ने सारी भविष्यवाणी और शुभ मुहूर्त फेल कर दिए लेकिन किसी में सवाल करने की हिम्मत नहीं है।
अंधविश्वास कमजोर मस्तिष्क की उपज है और  ऐसे ही लोगों का धर्म भी है।
टीवी मीडिया भी अपने थोड़े से फायदे के लिए ऐसे अंधविश्वासों का जोर शोर प्रचार करते हैं और ये नहीं सोचते कि समाज पर इनका क्या बुरा असर पड़ेगा।
 
दुर्घटना का डर भी अंधविश्वासों को बढ़ावा देता है। यात्रा में आप के पास अगर तावीज हो तो यात्रा में कोई कष्ट नहीं होता। इसलिए आप उसे सदैव अपने पास रखते हैं। और किसी भी वाहन में उसका मालिक भगवान की मूर्ति और फोटो इसीलिए रखता है और उसे विश्वास होता है कि किसी भी दुर्घटना से उसकी रक्षा होगी, लेकिन रोज हजारों की संख्या में वाहन दुर्घटना के शिकार होते और यात्री मरते हैं और सभी में भगवान की फोटो तथा उसमें बैठे यात्रियों के पास ताविज फिर भी कोई रक्षा नहीं होती और न ही कोई भगवान पर उंगली उठता है कि मेरे पास तो तावीज थी फिर आपने ऐसा क्यों किया।
बच्चों को बचपन से ही भगवान की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर मांगना शिखाया जाता और उसे विश्वास दिलाया जाता है कि सिर्फ भगवान ही तुम्हारी सारी इच्छाएं और परीक्षा में पास कर सकता है। जिससे होता ये है कि वो बच्चा अपने मस्तिष्क के कार्य का अधिकांश भाग उस भगवान को सौप देता है।
अगर कोई व्यक्ति किसी वस्तु के अशुभ होने में अंधविश्वास रखता है, तो दुर्घटना उस वस्तु के कारण नहीं होती बल्कि व्यक्ति कि अपनी आंतरिक अवस्था के कारण होती है। यही खेद है की हम केवल उस समय को याद रखते हैं, जब दुर्घटना हुई, और बीसियों बार जब कुछ नहीं हुआ , उसे भूल जाते हैं ।

स्त्रियां संतान की लालसा में गरम लहू भी चाटती है। हर मुहल्ले में कोई ना कोई वृक्ष इच्छा की पूर्ति कर देता है। 
चेचक जैसी बीमारी को छोटी बड़ी माता तथा बिहार में कोरोना जैसी महामारी को कोरोंना माता नाम देकर पूजा शुरू हो गई है।
इन सब के वजह अशिक्षा नहीं अज्ञानता, डर और कम मेहनत से ज्यादा पाने की इच्छा है क्यों शिक्षित लोग खासकर स्त्रियां इन सब अंधविश्वासों को बढ़ चढ़ हिस्सा ले रहे हैं।
इन अंधविश्वासों और पाखंडों का प्रचार प्रसार लोगों को डर दिखा कर वही कर रहे हैं जिन्हें किसी ना किसी रूप में लोगों को मूर्ख बना कर फ़ायदा उठा रहे हैं।
बड़े बुजुर्गों ने कहा और किया था तो सही ही होगा ये धारणा को भी त्यागना होगा।
बुद्घिमत्ता तो इसी में है कि हम सब अंधविश्वासों को अपने मस्तिष्क कि कसौटी पर कसें और उन को हावी ना होने दें, अन्यथा तैंतीस करोड़ देवी देवताओं कि आबादी बढ़ती ही जाएगी।

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