एकलव्य जो कि एक गरीब और सबसे बड़ी बात की शूद्र था उसे विनती और निवेदन करने पर भी उसे ये कहकर धनुर्विद्या देने से मना कर दिया और बेज्जत किया गया और कहा गया कि तुम एक दरिद्र और शूद्र हो और शूद्र को इसका अधिकार नहीं है, एकलव्य तो वापस चला गया।
लेकिन एकलव्य सच में बहुत महान था क्यों कि इसने उसी धूर्त को ही गुरु मानकर उसकी मूर्ति बनाकर खुद से ही सीख कर अपनेआप को अर्जुन से भी ज्यादा महान धनुर्धर बना लिया था, द्रोणाचार्य को इसकी खबर हुयी तो वो डरा की अगर मै अर्जुन (जैसे बेवकूफ़ जो कि गुरु के बाद भी एकलव्य से पीछे रह गया) को सबसे अच्छा नही सिद्ध किया तो मेरी नाक कट जाएगी और राज्य से भी दूर हो जाऊंगा,
तभी वो धूर्त, कपटी द्रोणाचार्य ने चाल चली और गुरु दक्षिणा लेने पहुंच गया, धूर्तता की हद तो देखिए जिसको शिक्षा देने से इंकार किया और अपमानित करके भगाया था उसी के पास गुरु दक्षिणा लेने पहुंच गया और मांगा क्या एकलव्य के दाहिने हाथ का अंगूठा जिससे वो धनुष चला ही ना पाए।
एकलव्य तो सच मे महान ही था क्यों कि उसको ये पता होते हुए भी मै अंगूठा काट दिया तो पूरी जिंदगी कभी भी धनुष नही चला पाऊंगा और तो और उसे जिसने उसके शूद्र होने की वजह से शिक्षा देने से मना किया था उसे अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काट कर दे दिया।