जातिव्यवस्था और पेरियार

• ईश्वर, धर्म, शास्त्र और ब्राह्मण लोगों में गुलामी और अज्ञानता की वृद्धि के लिए बनाए गए हैं। वे जाति व्यवस्था को मजबूती प्रदान करते हैं।” (पेरियार : 93वें जन्मदिवस पर प्रकाशित स्मारिका, 17 सितंबर 1971, अनीमुथू 1974 : 1974)।

• शास्त्र पुराण आदि ग्रंथों को महज शूद्रों और पंचमों के जीवन को नियंत्रित करने के लिए नहीं रचा गया था, अपितु उनकी रचना शूद्रों और पंचमों को उनकी तुच्छता का बोध कराने और उसे स्वीकारने के लिए की गई थी। (कुदी आरसु-कु.आ., 30 मार्च 1926)

• “क्या मार्क्स इस देश के ब्राह्मणों द्वारा थोपी गई प्रभुसत्ता से परिचित थे? क्या वह जानते थे कि अपना प्रभुत्व बनाए रखने के लिए वे किस तरह षड्यंत्र रचते हैं? क्या वह जानते होंगे कि इस देश के मूल निवासियों को जन्म से ही शूद्र, गुलाम माता-पिताओं की संतान माना गया है? कि इस देश में ऐसी धार्मिक और शास्त्रोक्त विद्या है, जो इसे वैध ठहराती है? मार्क्स ने पूंजीवाद और उसके वर्चस्व के बारे में बताया है कि धर्म किस प्रकार विशिष्ट संदर्भों और वास्तविकताओं में पूंजीवाद शोषण को न्यायोचित ठहराता है। यह उम्मीद करना कि मार्क्स हमारे हालात से परिचित थे; न तो उचित है, न ही न्यायपूर्ण।” (विदुथलाई, 20 सिंतबर 1952, अनीमुथू : 1746)


शूद्र भी एक सीमा तक ही ‘स्पृश्य’ थे। ब्राह्मण की निगाह में उन्हें भी हीन और ओछा माना जाता था। लेकिन, जैसा पेरियार लिखते हैं– ‘शूद्र अपनी अस्थिर, अनिश्चित, अमानवीय परिस्थिति को स्वीकारने को तैयार नहीं थे। इस कारण एक ओर तो उन्हें ब्राह्मणों का पिछलग्गू बनते हुए देखा गया। दूसरी ओर खुद को दलितों से अलग दिखाते हुए।’


• शूद्र स्वयं को श्रेष्ठतर समझ सकते हैं। मगर, असलियत में वे बिलकुल नहीं है। क्योंकि, जाति-आधारित समाज उन्हें सम्माननीय मानने से इनकार करता है। ब्राह्मण धर्मशास्त्र और स्मृतियां शूद्र को ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करती हैं, जो ‘’दास, वेश्या अथवा रखैल की औलाद हो; जन्मजात दास हो अथवा दास के रूप में बड़ा हुआ हो।’’ (कु.आ., 16 जून 1929, अनीमुथू, 57)

• “यदि वर्ण-व्यवस्था अस्तित्व में नहीं होती, तो अस्पृश्यता भी, जो उसकी देह का प्राणतत्त्व है; जीवित नहीं रह पाएगी।’’ इसलिए, ‘यदि हम महात्मा के अस्पृश्यता उन्मूलन के सिद्धांत का अनुसरण करते हैं, तो हम दोबारा अस्पृश्यता, जिसे हम समाप्त करने के प्रयास में लगे हैं; के गहरे गर्त में जा पड़ेंगे।” (कु.आ., 7 अगस्त 1927, अनीमुथू, 1976-77)

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.