आध्यात्मिकता एक गप्प




आध्यात्मिकता एक गप्प

पता नहीं अध्यात्मिकता क्या होती है पर इससे ज़्यादा बड़ी गप्प कोई नहीं लगती कि हम अध्यात्मवादी हैं और पश्चिम भौतिकवादी है। इससे बड़ा झूठ कोई हो नहीं सकता।

 शादी जिसे हम पवित्र बंधन कहते हैं, जनम-जनम का बंधन कहते हैं उसीमें देखिए क्या-क्या होता है? पैसा, पद, हैसियत, प्रतिष्ठा, जाति, वर्ण सब नाप-तौल करके रिश्ते किए जाते हैं। इनमें से कौन-सी चीज़ अध्यात्मिक है? पश्चिम में देखिए, उनकी कितनी कहानियां हैं जिसमें लेखक को लड़की की शादी की चिंता खाए जाती हो? वहां का कितना साहित्य ऐसा है जिसमें लड़की को ‘पराया धन’ और ऐसा ‘बोझ’ कहा गया हो जिसे ‘उतारे’ बिना बैकुण्ठ न मिलता हो? यह ‘बोझ’ और ‘पराया धन’ की भाषा अध्यात्मिक भाषा है!? 

इस अध्यात्मिक नगरी भारत में आप लड़की का रिश्ता ढूंढने निकलिए, पांच लड़के अगर बिना दहेज वाले मिल जाएं तो समझिएगा कि टाई चिपकाए चैनलों के लिए एक ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ आपको मिल गयी। और हम अध्यात्मिक हैं। यह ग़ज़ब की अध्यात्मिकता ऐसी है कि आदमी मर जाए तो भी पीछा न छोड़े। यह कहती है कि मरे हुए आदमी के लिए भी पूरी-कचौड़ी का इंतज़ाम करो। भले कर्ज़ा लेके करो पर करो। क्या ग़ज़ब अध्यात्मिकता है!? आत्मा को भी लड्डू और खीर चाहिए। और पश्चिम भौतिकवादी है। हमारी अध्यात्मिकता एक-एक चीज़ में स्पष्ट है।

 बताते हैं कि ‘जो मां-बाप का आदर नहीं करता उसे सफ़लता नहीं मिलती’। मतलब? मां-बाप से भी गणित। कुछ मिले तो आदर करो, वरना क्या ज़रुरत? सफ़लता मिलेगी इसलिए आदर करो। कहते हैं कि पड़ोसी से हमेशा बनाके रखो, पटाके रखो। क्यों ? जो पड़ोसी न हो वो सड़क पर मर रहा हो तो गाड़ी में भजन सुनते हुए निकल लो!? क्योंकि अनजान आदमी से पता नहीं कोई काम हल हो न हो, पता नहीं क्या उसकी हैसियत हो, क्या उसकी जाति हो!? पड़ोसी बग़ल में है, चार काम हम उसके करेंगे तो चार वो हमारे करेगा। हम पड़ोसपन को भी जाति में बदल देने में सक्षम लोग। 

सिखाते हैं कि दान करो तो स्वर्ग मिलेगा। मतलब एक-एक चीज़ में गणित। ये करो क्योंकि वो मिलेगा। ये मिलने की उम्मीद न हो तो वो करने का क्या मतलब! ईश्वर के पास जाओ क्योंकि वो सब देखता रहता है इसलिए कहीं कुछ बिगाड़ न दे, उसे सैट रखो। भगवान के चक्कर काटो क्यों कि वह मनोकामनाएं पूरी कर सकता है। इस हाथ ले उस हाथ दे। इसे कहते है अध्यात्मिकता! हम कहते हैं कि संबंध सबसे पहले है और हम रिश्तों को निभानेवाले भावुक लोग हैं। कैसे!? वो ऐसे कि सारे संबंध हम दफ़्तर में निभाते हैं। हम संबंध बनाते भी यही सब देखके हैं कि अगला ‘काम का आदमी’ है, इससे अच्छी ‘निभेगी’। चाचे का लड़का, मामू का लड़का, दोस्त का साला दफ़्तर में आया है, ‘काम’ लेके आया है, क़ाग़ज़ पूरे नहीं हैं, डेट निकल चुकी है, सामने विंडो पर भीड़ भड़भड़ा रही है, सुबह सात-सात बजे से लोग गांवो से आ-आके खड़े हैं, भूखे-प्यासे खड़े हैं। तो क्या हुआ!! हम भावुक और अध्यात्मिक लोग। संस्कृति बोलती है कि पहले रिश्ता निभाओ-चाचे का, मामे का, दोस्त का काम करके दो। फ़िर अलां-फ़लां ग्राउंड पर माइक लगाके रोवो कि हाय भ्रष्टाचार पता नहीं क्यों बढ़ता जा रहा है!? पूछो कि अभी तुम जो करके आए हो अगर वही तुम्हारी संस्कृति है, वही न्याय है तो भ्रष्टाचार नहीं बढ़ेगा तो क्या अंगूर की बेल बढ़ेगी!? और हमारे अध्यात्मिक लेखक और कलाकार! वे भी भौतिकवादियों के ऑस्करों और नोबेलों के लिए मरे जाते हैं। उन्हें गयानपीठ-अयानपीठ, सहित-अकादमी पूरे नहीं पड़ते। किसी तरह ऑस्कर हाथ लग जाए, नोबेल जेब में आ जाए। अध्यात्मिक आदमी को देसी पुरस्कार का भी क्या करना!? तुम समाज-सेवी आदमी-लंगोट-वंगोट मारके तपस्या करो जंगल में पेड़ के नीचे, पुरस्कार के बारे में तो सोचना भी पाप है। क्यों मारे-मारे फिरते हो? ख़ामख्वाह, चुनरिया मैली करने को!? इतने सारे अध्यात्म के बाद एक बार तो सोचना बनता ही है कि भ्रष्टाचार के बीज आखि़र कहां छुपे हैं। 

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