भगवान कुछ करता क्यों नहीं?

भगवान कुछ करता क्यों नहीं?

भगवान भी शायद, महात्मा गांधी के तीन बंदरों की तरह है जो मुंह कान और आंख पर हाथ रखे हुए हैं। फर्क सिर्फ यह है कि, बापू के बंदर ना बुरा देखते थे, ना बुरा सुनते थे, और ना बुरा बोलते थे। पर भगवान ना बोलता है, ना सुनता है, ना देखता है - ना अच्छा और ना बुरा।
अब सवाल यह है कि, आखिर वह करता क्या है? आस्तिक लोगों के विचारों में कई अंतर्विरोध है, वे अपने स्वार्थ के लिए इन वाक्यों का समय समय पर प्रयोग करते हैं।
जब-जब जो होना होता है वही होता है।
लिखे हुए को कोई नहीं टाल सकता।
 जैसा बोओगे वैसा काटोगे यानी सब कर्मों का फल है।
 जो किस्मत में लिखा होता है वही होता है।
 पति पत्नी का जन्म जन्म का साथ होता है।
 भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता।
 भगवान के घर देर है अंधेर नहीं।

यह वाक्य परस्पर विरोधी हैं कि 'भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता' और 'सब कर्मों का फल है' या 'जैसे बोलोगे वैसे काटोगे' और 'लिखे हुए को कोई नहीं टाल सकता' अगर 'भगवान की मर्जी से ही पत्ता हिलता है, तो उसमें कर्म क्या करोगे और इंसान को 'कर्मों का फल' ही मिलता है और 'जैसी करनी वैसी भरनी है' तो उसमें भगवान क्यों दखल देगा?
कहते हैं, भगवान की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिल सकता मगर भगवान, इष्ट देव या गुरु तो सब के अलग-अलग हैं जैसे गुरु नानक, महावीर स्वामी, राम, हनुमान, गॉड, अल्लाह आदि तो क्या किसी पेड़ के पास पहले सब भगवानों की मीटिंग होती है? तब फैसला होता है कि पत्ता हिलाना है या नहीं कोई कहता होगा कि मैं पत्ता हिलाऊंगा और दूसरा भगवान कहता होगा कि पत्ता नहीं हिलाना चाहिए। फिर तो भगवान को यह भी पता होगा कि एक पेड़ पर कितने पत्ते हैं ? और उनमें से कितने गिराने हैं? कितने रोकने हैं! या इन पत्तों को हिलाकर किसी को ठंडक पहुंचानी है या ठंड है तो उसे रोकना है।
मान लीजिए कि गर्मी के मौसम में किसी पेड़ के नीचे दो अलग-अलग धर्मों के व्यक्ति बैठे हैं और दोनों को गर्मी लग रही है एक का भगवान अपने अनुयायियों को पत्ते हिलाकर ठंडक पहुंचाना चाहता है और दूसरा अपने अनुयाई को यातना के रूप में गर्मी पहुंचाना चाहता हो फिर क्या होगा क्या दोनों भगवानों में झगड़ा होगा यह तो नामुमकिन है कि पत्ते हिले, एक को हवा लगे और दूसरे को हवा ना लगे।
कहते हैं कि मरने के बाद मृत व्यक्ति को दूसरे जन्म के लिए पंक्ति में खड़े होकर इंतजार करना पड़ता है, तब जाकर उसको दूसरी योनि मिलती है। हैरानी इस बात की है कि कहां भगवान पत्तों तक का हिसाब रखता है, और कहां उसे यह भी पता नहीं होता कि मरते ही व्यक्ति को दूसरी कौन सी योनि देनी है? 

अगर एक भगवान दूसरे भगवान के अनुयायियों को कुछ नहीं कहता तो स्पष्ट है कि उस भगवान को दूसरे भगवान के अनुयाई से कोई सरोकार नहीं होगा कि, वह क्या करता है अच्छा करता है या बुरा करता है। फिर उन लोगों के कर्मों का क्या हिसाब होता है जो धर्म बदलकर दूसरे धर्म में आ जाते हैं जैसे कोई हिंदू धर्म से जैन धर्म में आ गया तो उसके पूर्व के कर्मों की फाइल का क्या होगा और अगर भगवान महावीर उसके पिछले कर्मों के बारे में दखलअंदाजी नहीं करते हैं तो, हर आदमी अपनी अंतिम अवस्था में आकर अपना धर्म परिवर्तन कर ले तो इससे अपने पिछले बुरे कर्मों के या पाप के फल से आसानी से बच जाएगा या फिर उनके कर्मों की फाइल बदलनी होगी।
अगर परम सत्य एक ही है तो वह निरंकारी, नामधारी, जैन, राधा स्वामी आदि अलग अलग क्यों हैं? एक ही धर्म में हनुमान, राम, दुर्गा, काली अलग अलग क्यों है? वैष्णो देवी को मानने वाला हनुमान की पूजा कर अपनी समस्या का समाधान क्यों नहीं कर लेता! क्योंकि हनुमान के पास वैष्णो देवी के भक्तों की फाइल नहीं होती या शायद एक ही आदमी हनुमान मंदिर वैष्णो देवी बद्रीनाथ सब जगह जा कर पूजा इसलिए करता है। क्योंकि बिक्रीकर के कार्यालय में जाकर बिक्रीकर अधिकारी, क्लर्क, चपरासी सबको अलग-अलग पटाना पड़ता है। लोग अपने भगवान की बुराई इसलिए नहीं करते कि, कहीं वह कुछ छीन न ले जिसने कुछ दिया ही नहीं। मगर अपने मां-बाप की बुराई करने से बाज नहीं आते, जो वास्तव में उनके जन्मदाता हैं और उनकी भलाई के लिए चिंतित रहते हैं।
मनुष्य अपनी असफलता के लिए अपनी किस्मत को तभी दोष देता है जब वह किसी ऐसे काम में असफल हो जाए जिसके लिए वह काफी लालायित हो गया जिसे पाने के लिए उसने काफी परिश्रम किया हो पर दरअसल इसमें किस्मत का कोई हाथ नहीं होता।
कहते हैं कि कर्मों का अच्छा या बुरा फल, इंसान को मानसिक या शारीरिक तौर पर ही भुगतना पड़ता है क्योंकि कर्म इंसान का शरीर या उसका मन करता है उससे उसकी तथाकथित आत्मा का कोई संबंध नहीं है आत्मा किसी एक की नहीं है जिसके शरीर में गई उसी की है। पर उसके बाद भी लोगों से सुनने में आता है कि फलां आदमी की आत्मा भटकती है वह फलां आदमी के ऊपर आती है या उससे सताती है अगर वास्तव में ऐसा है तो वह आत्मा क्यों भटकती है उस आत्मा का क्या कसूर है क्या भगवान के घर भी आत्माओं के साथ म्यूजिक चेयर वाला खेल खेला जाता है कुर्सी कम और आत्माएं ज्यादा जिस आत्मा को कुर्सी नहीं मिली वह सालों तक भटकती है।
लोग कहते हैं कि भगवान के घर देर है पर अंधेर नहीं पापी का अंत जरूर आता है पर क्या पुण्य करने वाले का अंत नहीं आता।
भगवान को मानने वाले तमाम लोग खुद भी रिश्वत लेते हैं और उनका भगवान भी, कोई एक रुपए की और कोई सवा लाख की अपनी जेब और अपने काम के हिसाब से। भगवान के घर अन्याय ही नहीं अव्यवस्था भी है किसी के बदले किसी को मार दिया जाता है और आत्माएं भटकती रहती हैं। गरीब आदमी गरीबी की वजह से मर जाता है अगर कोई निहायत शरीफ आदमी असमय मर जाए तो लोग तसल्ली के लिए कहेंगे भगवान को भी अच्छे आदमी की जरूरत है शायद वह शरीफ आदमियों को ऊपर व्यवस्थापक बनाता है।
आज ज्यों ज्यों शिक्षा बढ़ रही है भगवान का बनाया हुआ इंसान ही उसका सबसे बड़ा दुश्मन बन गया है भगवान की शक्ति को चुनौती देने वाले या उसे निरर्थक साबित करने वाले ऐसे बुद्धिजीवियों में सबसे आगे हैं, चिकित्सा वैज्ञानिक जो नई-नई दवाइयों का आविष्कार करते रहते हैं उनके उसके बाद आते हैं वह डॉक्टर जो दवाइयों का रोगियों पर प्रयोग करते हैं किसी को पोलियो, टीवी, कैंसर हो जाए तो डॉक्टर उसका इलाज करके भगवान के काम में दखल देते हैं उस मरीज की किस्मत में जब पोलियो, टीवी के कैंसर से मरना लिखा है और भगवान ने उसको रोगी बना ही दिया है तो, डॉक्टर से बढ़कर पाप का भागी और कौन होगा जो उसे ठीक करने का प्रयत्न कर रहा है। कुछ हद तक वह रोगी या उसके घर वाले भी पापी है जो डॉक्टर के पास इलाज कराने गए इस हिसाब से तो डॉक्टर भगवान के काम में टांग ही नहीं अडाया, बल्कि वह बहुत बड़ा हत्यारा भी है। जब किसी रोगी को छूत रोग हो जाने पर डॉक्टर एंटीबायोटिक दवा देता है तो वह करोड़ों जीवाणुओं को मार देता है इस प्रकार कोई डॉक्टर अपने जीवन में हजारों मरीज देखकर अरबों कीटाणु मार देता है।क्या ये पाप नहीं है।

हमारे मां-बाप तथा स्कूल हमें शिक्षा देते हैं मगर, भगवान के बारे में हमें कोई सही शिक्षा नहीं देता। लोग यह भी कहते हैं कि, अगर लोग यह जान गए कि भगवान कुछ नहीं है तो भ्रष्टाचार बढ़ जाएगा, लोग निडर हो जाएंगे, पर आज लोग भगवान से डरते हैं फिर भी, क्या भ्रष्ट काम नहीं होते आजकल बलात्कार चोरी डकैती हत्या क्या नहीं होता। 

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