रास्तों पर चलने और मूंछें रखने पर प्रतिबंध लगाने वालों, अगर किसी ने भी मेरा रास्ता रोकने की कोशिश की तो उसे मेरा यह हथियार मजा चखाएगा।
अय्यंकाली विल्लुवंदी
तुम्हीं ने जलाया था प्रथम ज्ञानदीप
बैलगाड़ी पर सवार हो
गुजरते हुए प्रतिबंधित रास्तों पर
अपनी देह की यंत्रशक्ति से
पलट दिया था, कालचक्र को
ओमप्रकाश कश्यप
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सुनो, सुनो, सुनो—गीत मेरा सुनो
विपन्न, निढाल गरीबी में घिसटते हुए लोगो सुनो
‘यहां से जाएं, तो कहां जाएं?’
वे रो रहे हैं, बिलख रहे हैं, आंसू बहा रहे हैं
हमारा न कोई घर है, न देश
न ही सिर छिपाने को जंगल
दिन के उजाले में जंगलों की सफाई करना
रात्रि को वहीं निढाल पड़ जाना
बीज बोने के बाद
पेड़ जब देने लगते हैं फल
मालिक आकर कब्जा लेता है उन्हें
हमारे पास अब केवल रोना ही बचा है
हमारे हिस्से है श्रम, केवल श्रम
ढेर सारा, बल्कि सारे का सारा श्रम
हम सड़कों पर चल नहीं सकते
बाजार में प्रवेश करने की अनुमति नहीं है हमें
लेकिन हम बढ़ेंगे….बढ़ेंगे
बढ़ते रहेंगे, बढ़ते ही रहेंगे।
ऊपर दिया गया गीत करीब 100 वर्ष पुराना है। अय्यंकाली द्वारा स्थापित ‘साधुजन परिपालन संघम’ की बैठकों में गाया जाने वाला गीत। केरल के दलितों और आदिद्रविड़ों में आधुनिक भावबोध जगाने में इस गीत का बड़ा योगदान है। चक्कोला कुरुंबम दीविथन इसे गाया करते थे। ऐसे मार्मिक स्वर में कि श्रोतागणों की आंखें डबडबा जाती थीं। इस बारे में आगे चर्चा करने से पहले अय्यंकाली के जीवन से दो शब्द चित्र—
बैलगाड़ी से क्रांति
वर्ष 1891(कुछ विद्वान इसे 1893 मानते हैं)। करीब 30 वर्ष का एक हृष्ट-पुष्ट और सुदर्शन युवक। एकदम नई बैलगाड़ी, जोतने के लिए एक जोड़ी युवा-छरहरे, सफेद बैल। एक जोड़ी पीतल की बड़ी-बड़ी घंटियां—सब उसने आज ही के लिए खरीदे हैं। इनके अलावा अपने लिए चमकीला अंगवस्त्र, शानदार पगड़ी और रौवदार जूतियां। मानो अपने अनूठे बाने से काल के कपाल पर सुनहरी इबारत टांकने को आतुर हो। बैलों को गाड़ी में जोतने से पहले वह उन्हें प्यार से सहलाता है। फिर उनके गले में घंटियां बांधकर बैलगाड़ी में जोत देता है। उसके बाद पूरी शान से बैलगाड़ी में सवार होता है। सधे बैल इशारा पाते ही आगे बढ़ने लगते हैं। ‘टनश्टन’ बजती घंटियां पचासियों मीटर दूर से उसके आने का पता दे देती हैं। लोग घंटियों की आवाज सुनकर बाहर निकल आते हैं। स्त्रियां और बच्चे खिड़कियों-दरवज्जों से झांकने लगते हैं।
युवक जिस जाति से आता है, उसे न तो बैलगाड़ी पर सवार होने का अधिकार है। न अंगवस्त्र धारण करने का। न ही उन मार्गों पर चलने का जिनपर उसके बैल हाथियों जैसी मस्त चाल से आगे बढ़े जा रहे हैं। उसकी शान देखकर उसके अपने लोगों का सीना शान से चौड़ा हो जाता है। कुछ को ईर्ष्या होती है। कुछ की आंखों की अंगार फूटने लगते हैं। वे घरों से लाठियां, डंडे वगैरह निकालकर बैलगाड़ी के रास्ता रोक लेते हैं। जो हो रहा है, इसकी उसे उम्मीद थी। इसलिए वह तैयार होकर आया है। रोज-रोज अपमान सहते रहने से अच्छा है, उसका प्रतिकार किया जाए। फैसला इस पार हो या उस पार। विरोधियों को तना देख वह अपनी खुखरी निकाल लेता है। उसका रौद्र रूप देख रास्ता रोकने वाले भयभीत हो जाते हैं। जीत का जश्न मनाती हुई बैलगाड़ी आगे बढ़ जाती है।
दुनिया में अनेक महापुरुष हुए। सामाजिक परिवर्तन के लिए उन्होंने बड़ी-बड़ी लड़ाइयां लड़ीं, परंतु बैलगाड़ी पर चढ़कर क्रांति का शंखनाद करने वाले वे अकेले ही थे।