भविष्य की दुनिया ?


भविष्य की दुनिया ?

कल की दुनिया कैसी थी?
 आज की दुनिया कैसी है? 
आने वाले कल की दुनिया कैसी होगी?
 समय के साथ-साथ, शताब्दियों के अंतराल में कौन-कौन से परिवर्तन होंगे? 
केवल तर्कवादी इन बातों को सही-सही समझ सकता है। धर्माचार्यों के लिए इन्हें समझना अत्यंत कठिन है। 
यह बात कहने का मेरा आधार क्या है? 
धर्माचार्य मात्र उतना जानते हैं, जितना उन्होंने धर्मशास्त्रों और ऊटपटांग पौराणिक साहित्य को रट्टा लगाते हुए समझा है। उन सब चीजों से जाना है, जो ज्ञान और तर्क की कसौटी पर कहीं नहीं ठहरतीं। उनमें से कुछ केवल भावनाओं में बहकर सीखते-समझते हैं। दिमाग के बजाय दिल से सोचते हैं। अंध-श्रद्धालु की तरह मान लेते हैं कि उन्होंने जो सीखा है, वही एकमात्र सत्य है। 

बुद्धिवादियों का यह तरीका नहीं है। वे ज्ञानार्जन को महत्व देते हैं। अनुभवों से काम लेते हैं। उन सब वस्तुओं से सीखते हैं, जो उनकी नजर से गुजर चुकी हैं। प्रकृति में निरंतर हो रहे परिवर्तनों, जीव-जगत की विकास-प्रक्रिया से भी वे ज्ञान अर्जित करते हैं। इसके साथ-साथ वैज्ञानिक शोधों, महापुरुषों के ज्ञान, व्यक्तिगत खोजबीन, उपलब्ध शोधकार्यों को भी वे आवश्यकतानुसार और बिना किसी पूर्वाग्रह के ग्रहण करते हैं। 
धर्माचार्य सोचता है कि परंपरा-प्रदत्त ज्ञान ही एकमात्र ज्ञान है, उसमें कोई भी सुधार संभव नहीं है। अतीत को लेकर जो पूर्वाग्रह और धारणाएं प्रचलित हैं, वे उसमें किसी भी प्रकार के बदलाव के लिए तैयार नहीं होते। दूसरी ओर तर्कवादी मानता है कि यह संसार प्रतिक्षण आगे की ओर गतिमान है। सब कुछ तेजी से बदल रहा है। इसलिए वह अधुनातन और श्रेष्ठतर के स्वागत को सदैव तत्पर रहता है। 
मेरा आशय यह नहीं है कि दुनिया-भर के सभी धर्माचार्य एक जैसे हैं। लेकिन, जहां तक ब्राह्मणवादीयों का सवाल है, वे सब-के-सब बुद्धिवाद का विरोध करते हैं। परंपरा नयेपन की उपेक्षा करती है। वह लोगों को तर्क और मुक्त चिंतन की अनुमति नहीं देती। न ही शिक्षा-तंत्र और परीक्षा-विधि को उन्नत करने में उन्हें कोई मदद पहुंचाती है। उलटे वह लोगों के पूर्वाग्रह रहित चिंतन में बाधा उत्पन्न करती है। परंपरा-पोषक धर्माचार्य अज्ञानता के दलदल में बुरी तरह धंसे हैं; पुराणों के दुर्गंधयुक्त कीचड़ में वे आकंठ लिप्त हैं। अंधविश्वास और अवैज्ञानिक विचारों ने उन्हें खतरनाक विषधर बना दिया है। हमारे धार्मिक नेता, विशेषकर हिंदू-धर्म के अनुयायी; अन्य धर्माचार्यों से भी गए-गुजरे हैं। यदि धर्माचार्य लोगों को 1000 वर्ष पीछे लौटने की सलाह देता है, तो नेता उन्हें हजारों वर्ष पीछे धकेलने की कोशिश में लगे रहते हैं। ये जनता को सदियों पीछे धकेल भी चुके हैं। 
बुद्धिवाद न तो धर्माचार्यों को रास आता है, न ही हमारे हिंदू-नेताओं को। उन्हें केवल अवैज्ञानिक, मूर्खतापूर्ण और बुद्धिहीन वस्तुओं से लगाव है। अपने अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि ये लोग नई दुनिया में भी उम्मीद लगाए रहते हैं कि आने वाला समय उन जैसे असभ्य और गंवारों का होगा। ओल्ड इज गोल्ड की परिकल्पना पर वही व्यक्ति विश्वास कर सकता है, जिसने नए परिवर्तन को न तो समझा हो, न उसकी कभी सराहना की हो; केवल अकल के अंधे लोग उनका अनुसरण कर सकते हैं। हम जैसे तर्कवादी लोग पुरातन को पूर्णतः खारिज नहीं करते। उसमें जो अच्छा है, हम उसका स्वागत करते हैं। उसे अपनाने के लिए भी अच्छाई और नएपन में विश्वास करना अत्यावश्यक है। तभी हम नए और अधुनातन सत्य की खोज कर सकते हैं। समाज तभी प्रगति कर सकता है, जब हम नए और बेहतर समाज की रचना के लिए नवीनतम परिवर्तनों के स्वागत को तत्पर हों। लोग चाहे वे किसी भी देश अथवा संस्कृति के क्यों न हों, पुरातन से संतुष्ट कभी नहीं थे। उनकी दृष्टि सदैव अधुनातन ज्ञान एवं प्रगति पर केंद्रित रही है। वे जिज्ञासु और निष्पक्ष थे। इसी कारण वे विस्मयकारी वस्तुओं की खोज कर पाए। आज दुनिया के हर कोने के लोग मानवोपयोगी आविष्कारों का लाभ उठा रहे हैं। इसलिए यह केवल उन लोगों के लिए है, जो सत्य को अनुभव करना जानते हैं। उसे आत्मसात करने को तत्पर हैं। ऐसे ही लोग शताब्दियों आगे के परिवर्तनों की कल्पना कर सकते हैं। 

अतीत के विहंगावलोकन और महान् इतिहासकारों की राय से पता चलता है कि आने वाले समय में राजशाही का अंत हो जाएगा। बहुमूल्य सोना-चांदी, हीरे-जवाहरात प्रभु वर्ग का विशेषाधिकार नहीं रह पाएंगे। हमारे पास खेती-किसानी और सुखामोद, यहां तक कि वैभव-सामग्री जुटाने के विपुल संसाधन हैं। दूसरी ओर भूख, गरीबी और दैन्य के सताए लोग बड़ी संख्या में हैं। ऐसे लोगों के पास सामान्य सुविधाओं का अभाव हमेशा बना रहता है। उनके पास न तो भरपेट भोजन है, न ही जीवन का कोई सुख। हालांकि, दुनिया में अवसरों की भरमार है। उनसे कोई भी व्यक्ति अपनी रुचि के अनुसार जीवन के लक्ष्य निर्धारित कर सकता है; अपने आपको ऊंचा उठा सकता है। फिर भी ऐसे लोग बहुत कम हैं, जो उन सबका आनंद उठा पाते हैं। कच्चे माल और उत्पादन के क्षेत्र तेजी से विकास की ओर दुनिया अग्रसर है। दूसरी ओर ऐसे लोग भी अनगिनत हैं, जो मामूली संसाधनों के साथ गुजारा करने को विवश हैं। समाज में जीवन की मूलभूत अनिवार्यताएं होती हैं। उनके अभाव में जीवन बहुत कठिन हो जाता है। बहुत-से लोग न्यूनतम सुविधाओं के लिए तरसते हैं। बड़ी कठिनाई में वे जीवनयापन कर पाते हैं। हमारे पास कृषि भूमि की कमी नहीं है। बाकी संसाधन भी पर्याप्त मात्रा में हैं। मगर ऐसे लोग भी हैं, जिनके पास जमीन का एक टुकड़ा तक नहीं है। ऐसी दुनिया में एक ओर सुख-पूर्वक जीवनयापन के भरपूर संसाधन मौजूद हैं, तो दूसरी ओर भुखमरी गरीबी और दुश्चिंताओं की भरमार है; जिसके चलते समाज में चुनौतियां-ही-चुनौतियां हैं। क्या इन सबके और ईश्वर के बीच कोई संबंध है? क्या इन सबके और मनुष्य के बीच कोई तालमेल है? 

ऐसे लोग भी हैं जो सांसारिक कार्यकलापों को ईश्वर से जोड़ते हैं। परंतु, हमें ऐसा कोई नहीं मिलता, जो दुनिया की बुराइयों के लिए ईश्वर को जिम्मेदार ठहराता हो। तो क्या यह मान लिया जाए कि आदमी नासमझ है; उसमें इन बुराइयों से निपटने की सामर्थ्य ही नहीं है? प्राणी मात्र के बीच मनुष्य सर्वाधिक बुद्धिमान है। यह आदमी ही है, जिसने ईश्वर, धर्म, दर्शन, अध्यात्म को गढ़ा है।

 कहा यह भी जाता है कि असाधारण मनुष्य ईश्वर का साक्षात्कार करने में सफल हुए थे। कुछ लोगों के बारे में तो यह दावा भी किया जाता है कि वे ईश्वर में इतने आत्मलीन थे कि स्वयं भगवान बन चुके थे। मैं बड़ी हिम्मत के साथ पूछता हूं कि आखिर क्यों ऐसे महान व्यक्तित्व भी दुनिया में व्याप्त तमाम मूर्खताओं को उखाड़ फेंकने में नाकाम रहे? क्या इससे स्पष्ट नहीं होता कि लोग अपने सामान्य बोध से यह नहीं समझ पाए कि सांसारिक चीजों का ईश्वर, धर्म, आध्यात्मिक निर्देश, न्याय, मर्यादा, शासन आदि से कोई संबंध नहीं है। ये सिर्फ इसलिए हैं, क्योंकि अधिकांश लोग स्वतंत्र रूप से सोचने तथा निर्णय लेने में अक्षम हैं? पश्चिमी देशों में अनेक विद्वानों ने बुद्धि को महत्व देते हुए तर्कसंगत ढंग से सोचना आरंभ किया। उन विचारों की मदद से उन्होंने विलक्षण ज्ञान के साथ-साथ चमत्कारिक आविष्कार किए हैं। उसके फलस्वरूप वे अपनी आध्यात्मिकता के परिष्कार के साथ-साथ अंधविश्वासों और आत्म-वंचनाओं का समाधान खोजने में भी कामयाब रहे। अंततः वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि प्राचीन ढकोसले ज्यादा दिन टिकने वाले नहीं हैं। 
यही कारण है कि उन्होंने नए युग पर ध्यान-केंद्रित करना आरंभ कर दिया है। 

बुद्धिवादी तरीके से अनेक चीजों का वास्तविक रूप हमारे सामने है। कालांतर में यही तरीका न केवल परिवर्तन का वाहक बनेगा, बल्कि सामाजिक क्रांति को भी जन्म देगा। एक समय ऐसा आएगा, जब ऐसा कोई काम नहीं होगा जिसे ओछा माना जाए या जिसके कारण व्यक्ति को हेय दृष्टि से देखा जाए। महिलाएं आत्मनिर्भर होंगी। उन्हें विशेष संरक्षण, सुरक्षा और सहयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। 
सहयोगाधारित विश्व-राज्य में जल, थल और वायुसेना बीते जमाने की चीजें बन जाएंगी। बस्तियों को तबाह कर देने वाले युद्धक जहाज और हथियार खुद नष्ट कर दिए जाएंगे। आजीविका के लिए रोजगार की तलाश आसान और मानव-मात्र की पहुंच में होगी। सुखामोद में चौतरफा वृद्धि होगी। ज्ञान-विज्ञान की मदद से मनुष्य की औसत आयु में बढ़ोतरी होगी। जनसंख्या वृद्धि की चाहे जो रफ्तार हो, आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता तथा उन्हें जुटाने में लगने वाला श्रम मूल्य न्यूनतम स्तर पर होगा। मशीनी-क्रांति उसे सहज-संभव कर दिखाएगी। 

मिसाल के तौर पर– कभी वे दिन थे, जब एक कारीगर एक मिनट में औसतन 150 धागे बुन पाता था। आज ऐसी मशीनें हैं, जो किस्म-किस्म के कपड़ों के 45,000 धागे प्रति मिनट की रफ्तार से आसानी से बुन लेती हैं। इसी तरह पहले कारीगर के लिए प्रति मिनट दो-तीन सिगरेट बनाना भी मुश्किल हो जाता था। आज एक मशीन प्रति मिनट में ढाई हजार सिगरेट बना देती है।  प्रौद्योगिकी विषयक ज्ञान में तीव्र वृद्धि हो रही है। तकनीक की मदद से आने वाली दुनिया में ऐसा संभव होगा, जब कोई आदमी दो सप्ताह श्रम करके साल-भर के लिए जरूरी वस्तुओं का उपार्जन कर सकेगा।  
यदि कहीं ऊंच-नीच, विशेषाधिकार और अधिकारविहीनता दिखेगी, वहां घृणा, जुगुप्सा, और विरक्ति के कारण भी मौजूद होंगे; और जहां ये चीजें अनुपस्थित होंगी, वहां अनैतिकता के लिए कोई स्थान न होगा।  मानसिक अपंगता के शिकार लोगों को विशेषरूप से देखभाल की जरूरत पड़ सकती है। बावजूद इसके ऐसे व्यक्तियों को तभी बंद किया जा सकेगा, जब वे दूसरे लोगों के लिए परेशानियां खड़ी कर रहे हों। स्त्री-पुरुष दोनों पर किसी प्रकार के प्रतिबंध लागू करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी। क्योंकि, वे दोनों ही संबंधों की अच्छाई-बुराई की ओर से सावधान रहेंगे।



ईश्वर की संकल्पना स्वतः और स्वाभाविक रूप से नहीं जन्मी है। यह विश्वास की प्रक्रिया है; जो बड़ों द्वारा छोटों में संप्रेषित और उपदेशित की जाती है। आने वाली दुनिया में ईश्वर की चर्चा तथा कर्मकांड करने वाले लोग नगण्य होंगे। यही नहीं ईश्वर के नाम पर जितने चमत्कारों का दावा किया जाता है; कालांतर में वे लुप्त हो जाएंगे। मनुष्य ईश्वर की चर्चा करेगा; किंतु बिना किसी अलौकिकताबोध के। आज आदमी यह सोचकर ईश्वर को याद करता है, क्योंकि उसे उसकी आवश्यकता बताई जाती है। यदि हम काम करते समय अचानक बीच में आ जाने वाली बाधाओं के रहस्य को समझ लें; यदि मनुष्य की सामान्य जरूरतें उसकी आवश्यकता के अनुसार समय रहते आसानी से पूरी हो जाएं; तब उसे ईश्वर और सृष्टि की परिकल्पना की आवश्यकता ही न पड़े। स्वर्ग की परिकल्पना अवैज्ञानिक और अप्रामाणिक है। यदि मानव-मात्र के लिए धरती पर ही स्वर्ग जैसा वातावरण उपलब्ध हो जाए, तब उसे स्वर्ग जैसी आधारहीन कल्पना की आवश्यकता ही नहीं पड़े। न ही स्वर्ग मिलने की चाहत उसे परेशान करे। यही मानवीय बोध की चरमसीमा है। ज्ञान-विज्ञान और विकास के क्षेत्र में ईश्वर के लिए कोई स्थान नहीं है। यदि व्यक्ति में खुद को जानने की योग्यता हो, तो उसे ईश्वर की जरूरत ही नहीं है। यदि मनुष्य इस दुनिया को ही अपने लिए स्वर्ग मान ले, तो वह स्वर्ग के आकाश में तथा नर्क के पाताल में स्थित होने की जैसी भ्रामक बातों पर विश्वास ही नहीं करेगा। जागरूक और विवेकवान व्यक्ति इस तरह के अतार्किक सोच को तत्क्षण नकार देगा। जहां व्यक्तिगत इच्छाओं का लोप हो जाता है, वहां ईश्वर भी मर जाता है। जहां विज्ञान जिंदा हो, वहां ईश्वर को दफना दिया जाता है।


कोई भी व्यक्ति ज्ञानार्जन द्वारा अपने जीवन में सुधार ला सकता है; यही दुनिया का नियम है। जब कोई तर्कबुद्धि से घटनाओं की सही व्याख्या नहीं कर पाता, तब वह चुपचाप अज्ञानता के वृक्ष के नीचे शरण लेकर ईश्वर को पुकारने लगता है। इस तरह के अबौद्धिक कार्यकलाप आने वाले समय में सर्वथा अनुपयुक्त माने जाएंगे।  इस तरह की आदर्श दुनिया अचानक नहीं गढ़ी जा सकती। धीर-धीरे, कदम-दर-कदम आगे बढ़ते हुए मेहनती लोगों द्वारा क्रमिक परिवर्तन के बाद, लंबे अंतराल में इस तरह की दुनिया अवश्य बनाई जा सकती है। समाज की विभिन्न समस्याओं के समाधान तथा मानवमात्र के बेहतर जीवन के लिए, नई दुनिया की संरचना के लिए यह रास्ता आदर्श होगा।


प्राचीन रीति-रिवाजों और पंरपराओं में अंध-आस्था ने लोगों के सोचने-समझने, तर्क-बुद्धि से काम लेने की प्रवृत्ति का लोप कर दिया है। ये चीजें दुनिया की प्रगति में बाधक बनी हुई हैं। कुछ लोगों के स्वार्थ इनसे जुड़े हैं। निहित स्वार्थ के लिए वही लोग, जो इन पुरानी और बकवास चीजों से ही कमाई करते रहते हैं; ऐसे लोग ही नई दुनिया की संरचना का विरोध करते हैं। वे उस दुनिया का विरोध करते हैं, जिसमें खुशियों की, सुख-शांति की भरमार होगी। लोगों के विकास की प्रचुर संभावनाएं भी रहेंगी। बावजूद इसके, जो मनुष्य के अज्ञान तथा कुछ लोगों के स्वार्थ के विरुद्ध खुलकर खड़े होंगे; वही नई दुनिया की रचना करने में समर्थ होंगे। नई दुनिया के निर्माताओं को मजबूत करने के लिए हमें उनके साथ उनकी कतार में शामिल हो जाना चाहिए। युवाओं और बुद्धिवादियों के लिए उचित अवसर है कि वे नए विश्व की रचना हेतु अपने प्रयासों को अपने विचार, ऊर्जा और सपनों को समर्पित कर दें।

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