अन्नाभाऊ साठे : एक क्रांतिकारी कवि, साहित्यकार, नाटककार, समाजसुधारक

अन्नाभाऊ साठे 

इस अन्ना को दुनिया अन्ना भाऊ साठे के नाम से जानती है। महाराष्ट्र में यह नाम अब उतना अपरिचित नहीं रहा पर तथाकथित ऊंची जातियों का एक तरह का तिरस्कार तमाम महानता के बावजूद अब भी जारी है। अन्नाभाऊ साठे का जन्म माँग नामक अनुसूचित जाति में हुआ था।

अछूत तो अछूत तिसपर माँ-बाप अत्यंत गरीब थे । कुलकर्णी (ब्राह्मण) गुरुजी के नीचपन के कारण केवल डेढ़ दिन ही स्कूल में टिक पाये और स्कूल छोड़ देना पड़ा । पेट की आग शांत करने के लिए उन्होने अपने गाँव वाटेगाँव (सांगली) से बॉम्बे का लगभग 400 किमी का सफर पैदल ही तय किया । यहाँ वे मजदूर आंदोलनों से गुजरते हुये कम्युनिस्ट लोगों के संपर्क में आए और आंदोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गए (बाद में वे रूस भी गए)। उन्होने 35 उपन्यास लिखे। 12 कथासंग्रह लिखे। 3 नाटक, 10 पोवाड़े, एक यात्रा वृतांत 14 तमाशा लिखे । उनके 8 उपन्यासों पर सिनेमा भी बना । उन्होने संयुक्त महाराष्ट्र के आंदोलन में सक्रिय सहभाग लिया और “माझी मैना” लावणी लिखी। अन्नाभाऊ साठे कम्युनिस्ट आंदोलन में थे पर धीरे-धीरे उससे उनका मोहभंग होता गया ।


 
16 अगस्त 1947 को जब देश का सारा ब्राह्मण-बनिया आजादी के जश्न में सराबोर था कम्युनिस्टों के भारी विरोध के बावजूद उन्होने बारिश में भीगते हुये 60 हजार लोगों की रैली बॉम्बे में निकाली और उद्घोषणा दी ” ये आजादी झूठी है देश की जनता भूखी है” । शायद उन्हें आभास हो गया था कि केवल ब्राह्मण-बनिए ही आजाद हुये हैं । अंतत वे कम्युनिस्ट काल्पनिक दुनिया से बाहर आ गए और वास्तविकता स्वीकारते हुये आंबेडकरवादी बन गए । उन्होने अपनी भावनाएं कुछ इस तरह व्यक्त कीं ।

जग बदल घालूनी घाव

सांगून गेले मज भीमराव…

हजारों साहित्यकार आपको मिल जाएंगे पर भयानक विपरीत परिस्थितियों को झेलकर ऊंचाइयों को छूते हुये बहुत कम मिलेंगे । अन्नाभाऊ साठे की महानता किस बात में है? स्कूली अनपढ़ होते हुये भी उन्होने पढ़ने-लिखने की न केवल योग्यता हासिल की बल्कि क्रांति का बहुत बड़ा साहित्य भी रचा जो अच्छे-अच्छे ज्ञानपीठियों की मिट्टी-पलीद कर दे। कम्युनिस्ट आंदोलन के नकली और खोखलेपन को समझने का उनसे अच्छा कोई उदाहरण नहीं है यह उनके जीवन से जाहीर है ।

1969 की 18 जुलाई को उनकी मृत्यु हुई इसी बहाने से आज उन्हें श्रद्धांजली देने के लिए यह पोस्ट लिखने की जरूरत महसूस हुई । कहते हैं बहुत दिनों से वे भूखे थे और भूख के कारण ही वे मृत्यु को प्राप्त हुये । आंबेडकरवादी आंदोलनों को धन कमाने का जरिया समझने वालों और विभिन्न बहाने बनाकर उन्हें बचाने वाले अंधभक्तों के मुंह पर मा कांशीराम का जीवन तो तमाचा है ही फकीरा “अन्नाभाऊ साठे” का जीवन भी यही संदेश देता है ।

(अगस्त १, इ.स. १९२० – जुलाई १८, इ.स. १९६९)

Author – Panjab Rao Meshram, July 18, 2015









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